दुश्मन का स्वार्थ

मेढकराज चौंका `तुम! तुम तो हमारे बैरी हो। मेरी जय का नारा क्यों लगा रहे हो?`
मंदविष विनम्र स्वर में बोला `राजन, वे पुरानी बातें हैं। अब तो मैं आप मेढकों की सेवा करके पापों को धोना चाहता हूं। श्राप से मुक्ति चाहता हूं। ऐसा ही मेरे नागगुरु का आदेश है।`
मेढकराज ने पूछा `उन्होंने ऐसा विचित्र आदेश क्यों दिया?`
मंदविष ने मनगढंत कहानी सुनाई `राजन, एक दिन मैं एक उद्यान में घूम रहा था। वहां कुछ मानव बच्चे खेल रहे थे। गलती से एक बच्चे का पैर मुझ पर पड़ गया और बचाव स्वभाववश मैंने उसे काटा और वह बच्चा मर गया। मुझे सपने में भगवान श्रीकृष्ण नज़र आए और श्राप दिया कि मैं वर्ष समाप्त होते ही पत्थर का हो जाऊंगा। मेरे गुरुदेव ने कहा कि बालक की मॄत्यु का कारण बन मैंने कृष्णजी को रुष्ट कर दिया है, क्योंकि बालक कॄष्ण का ही रूप होते हैं। बहुत गिड़गिड़ाने पर गुरुजी ने श्राप मुक्ति का उपाय बताया। उपाय यह है कि मैं वर्ष के अंत तक मेढकों को पीठ पर बैठाकर सैर कराऊं।`
मंदविष की बात सुनकर मेढकराज चकित रह गया। सांप की पीठ पर सवारी करने का आज तक किस मेढक को श्रेय प्राप्त हुआ? उसने सोचा कि यह तो एक अनोखा काम होगा। मेढकराज सरोवर में कूद गया और सारे मेढकों को इकट्ठा कर मंदविष की बात सुनाई। सभी मेढक भौंचक्के रह गए।
एक बूढा मेढक बोला `मेढक एक सर्प की सवारी करें। यह एक अदभुत बात होगी। हम लोग संसार में सबसे श्रेष्ठ मेढक माने जाएंगे।`
एक सांप की पीठ पर बैठकर सैर करने के लालच ने सभी मेढकों की अक्ल पर पर्दा डाल दिया था। सभी ने �हां� में �हां� मिलाई। मेढकराज ने बाहर आकर मंदविष से कहा `सर्प, हम तुम्हारी सहायता करने के लिए तैयार हैं।`
बस फिर क्या था। आठ-दस मेढक मंदविष की पीठ पर सवार हो गए और निकली सवारी। सबसे आगे राजा बैठा था। मंदविष ने इधर-उधर सैर कराकर उन्हें सरोवर तट पर उतार दिया। मेढक मंदविष के कहने पर उसके सिर पर से होते हुए आगे उतरे। मंदविष सबसे पीछे वाले मेढक को गप्प से �खा गया। अब तो रोज़ यही क्रम चलने लगा। रोज मंदविष की पीठ पर मेढकों की सवारी निकलती और सबसे पीछे उतरने वाले को वह खा जाता।
एक दिन एक दूसरे सर्प ने मंदविष को मेढकों को ढोते देख लिया। बाद में उसने मंदविष को बहुत धिक्कारा `अरे! क्यों सर्प जाति की नाक कटवा रहा है?`
मंदविष ने उत्तर दिया `समय पड़ने पर नीति से काम लेना पडता है। अच्छे-बुरे का मेरे सामने सवाल नहीं है। कहते हैं कि मुसीबत के समय गधे को भी बाप बनाना पड़े तो बनाओ।`
मंदविष के दिन मज़े से कटने लगे। वह पीछे वाले मेढक को इस सफाई से खा जाता कि किसी को पता भी न लगता। मेढक अपनी गिनती करना तो जानते नहीं थे, जो गिनती करके माजरा समझ लेते।
एक दिन मेढकराज बोला `मुझे ऐसा लग रहा है कि सरोवर में मेढक पहले से कम हो गए हैं। पता नहीं क्या बात है?`
मंदविष ने कहा `हे राजन, सर्प की सवारी करने वाले महान मेढक राजा के रूप में आपकी ख्याति दूर-दूर तक पहुंच रही है। यहां के बहुत से मेढक आपका यश फैलाने दूसरे सरोवरों, तालाबों व झीलों में जा रहे हैं।`
मेढकराज की गर्व से छाती फूल गई। अब उसे सरोवर में मेढकों के कम होने का भी गम नहीं था। जितने मेढक कम होते जाते, वह यह सोचकर उतना ही प्रसन्न होता कि सारे संसार में उसका झंडा गड़ रहा है।
आखिर वह दिन भी आया, जब सारे मेढक समाप्त हो गए। केवल मेढकराज अकेला रह गया। उसने स्वयं को अकेले मंदविष की पीठ पर बैठा पाया तो उसने मंदविष से पूछा `लगता हैं सरोवर में मैं अकेला रह गया हूं। मैं अकेला कैसे रहूंगा?`
मंदविष मुस्कुराया `राजन, आप चिन्ता न करें। मैं आपका अकेलापन भी दूर कर दूंगा।`
ऐसा कहते हुए मंदविष ने मेढकराज को भी गप्प से निगल लिया और वहीं भेजा जहां सरोवर के सारे मेढक पहुंचा दिए गए थे।
सीखः शत्रु की बातों पर विश्वास करना अपनी मौत को दावत देना है।
संदर्भ : पंचतंत्र की कहानियाँ
स्वर : श्रीमती रत्ना पांडे
सामग्री राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, भारत सरकार के वैबसाइट से उपलब्ध कराई गई है।
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