मूर्ख बातूनी कछुआ

एक बार बडे जोर का सूखा पड़ा। बरसात के मौसम में भी एक बूंद पानी नहीं बरसा। उस तालाब का पानी सूखने लगा। प्राणी मरने लगे, मछलियां तो तड़प-तड़पकर मर गईं। तालाब का पानी और तेजी से सूखने लगा। एक समय ऐसा भी आया कि तालाब में खाली कीचड़ रह गया। कछुआ बडे संकट में पड़ गया। जीवन-मरण का प्रश्न खडा हो गया। वहीं पड़ा रहता तो कछुए का अंत निश्चित था। हंस अपने मित्र पर आए संकट को दूर करने का उपाय सोचने लगे। वे अपने मित्र कछुए को ढ़ाडस बंधाने का प्रयत्न करते और हिम्म्त न हारने की सलाह देते। हंस केवल झूठा दिलासा नहीं दे रहे थे। वे दूर-दूर तक उड़कर समस्या का हल ढूढते। एक दिन लौटकर हंसो ने कहा `मित्र, यहां से पचास कोस दूर एक झील है। उसमें काफी पानी हैं, तुम वहां मजे से रहोगे।` कछुआ रोनी आवाज में बोला `पचास कोस? इतनी दूर जाने में मुझे महीनों लगेंगे। तब तक तो मैं मर जाऊंगा।`
कछुए की बात भी ठीक थी। हंसो ने अक्ल लडाई और एक तरीका सोच निकाला।
वे एक लकडी उठाकर लाए और बोले `मित्र, हम दोनों अपनी चोंच में इस लकड़ी के सिरे पकड़कर एक साथ उडेंगे। तुम इस लकड़ी को बीच में से मुंह से थामे रहना। इस प्रकार हम उस झील तक तुम्हें पहुंचा देंगे उसके बाद तुम्हें कोई चिन्ता नहीं रहेगी।`
उन्होंने चेतावनी दी `पर याद रखना, उड़ान के दौरान अपना मुंह न खोलना। वरना गिर पड़ोगे।`
कछुए ने हामी में सिर हिलाया। बस, लकड़ी पकड़ कर हंस उड़ चले। उनके बीच में लकड़ी मुंह में दाबे कछुआ। वे एक कस्बे के ऊपर से उड़ रहे थे कि नीचे खड़े लोगों ने आकाश में अदभुत नजारा देखा। सब एक दूसरे को ऊपर आकाश का दॄश्य दिखाने लगे। लोग दौड़-दौड़कर अपने छज्जों पर निकल आए। कुछ अपने मकानों की छतों की ओर दौड़े। बच्चे, बूढ़े, औरतें व जवान सब ऊपर देखने लगे। खूब शोर मचा। कछुए की नजर नीचे उन लोगों पर पड़ी।
उसे आश्चर्य हुआ कि उन्हें इतने लोग देख रहे हैं। वह अपने मित्रों की चेतावनी भूल गया और चिल्लाया `देखो, कितने लोग हमें देख रहे हैं!` मुंह के खुलते ही वह नीचे गिर पड़ा। नीचे उसकी हड्डी-पसली का भी पता नहीं लगा।
सीखः बेमौके मुंह खोलना बहुत महंगा पड़ता हैं।
संदर्भ : पंचतंत्र की कहानियाँ
स्वर : श्रीमती रत्ना पांडे
सामग्री राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, भारत सरकार के वैबसाइट से उपलब्ध कराई गई है।
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